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शिल्प और कथन के हिसाब से देखा जाय तो लोक-कथाएँ सम्पूर्ण जान पड़ती हैं। इन कहानियों को पहली पीढ़ी ने दूसरी पीढ़ी को, दूसरी ने तीसरी, तीसरी ने चौथी को सुनाया होगा…जो अब कितनी पीढ़ियों से गुजरती हुई, बिलकुल ही सुडौल रूप में हमारे साथ हैं। लोककथाएं हमेशा से ही लेखक या फिर सुनाने वाले को एक “स्पेस” देती हैं जिसमें वह कहानी को अपने ढंग से, परिवेश के अनुसार या फिर श्रोता के हिसाब से गढ़ता और जोड़ता-घटाता है। लोककथाएँ नदी के किनारे पड़े पत्थरों जैसी होती हैं। बिल्कुल सुडौल, चिकनी। जो कई दशकों या फिर शताब्दी पहले किसी पहाड़ी का हिस्सा रहे होंगे। जो पहाड़ी पर या फिर उससे लुढ़कते हुए न जाने कितने खण्डों में टूटते हुए, घिसते हुए , हवा के थपेड़ों और नदी की धार से तराशे गए होंगे। कितने सारे अनुभवों और समयअन्तरालों के बीच गुजरते-टकराते-बहते हुए, वर्त्तमान में नदी के किनारे पर आ लगे हैं। लोककथाओं की यात्रा भी तो अंतहीन होती है…सतत, अनवरत। इसलिए हमारा दायित्व बनता है कि हम इन लोक कथाओं को पढ़ें तथा अपनी आने वाली नई पीढ़ी को हस्तांतरित करें। जिससे ये कहानियों युगों-युगों तक जिंदा रहें। इसी बहाने नयी पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी से मिलती रहे। किस्सागो का सफ़र यूँ ही चलता रहे।
शायद इसी दर्शन को समझते हुए लेखक, चित्रकार और कार्टूनिस्ट आबिद सुरती ने प्रसिद्ध शिक्षाविद,गांधीवादी और बाल साहित्यकार गिजुभाई बधेका द्वारा लिखित गुजराती लोक कथाओं का पुनर्लेखन और चित्रांकन किया है। जिसे प्रथम बुक्स ने पठन स्तर -३ के बच्चों के लिए “गिजुभाई का खजाना- पहली किताब और दूसरी किताब” शीर्षक से दो खण्डों में प्रकाशित किया है। मुद्रण, संयोजन, भाषा की गुणवत्ता के लिहाज से दोनों खंड अच्छे बन पड़े हैं। कहानियाँ सुनी-सुनाई ही हैं, जैसी लोक-कथाएँ होती हैं। लेकिन इसके प्रस्तुतिकरण का अंदाज जुदा है। इन कहानियों को सभी उम्र वर्ग के लोग पढ़ना करेंगे। लेकिन इन्हें विशेष रूप से बच्चों को ध्यान में रखते हुए लिखा गया है। जो बेहद रोचक और चुटीली हैं। कहानियों के बीच-बीच में लोकगीतों की कुछ पंक्तियाँ भी लिखी गयी हैं जो बच्चों को आकृष्ट करेंगी। पूरी किताब रंगीन, अच्छे कागज, शुद्ध हिज्जे और बड़े शब्द आकार (फॉण्ट) में छपी हुई है। मुख्य पृष्ठ और अन्दर के पन्नों पर बड़े-बड़े विषय आधारित कार्टून बने हुए हैं जिन्हें आबिद साहब ने ही बनाया है। किताब के अंदर अंतिम पृष्ठ पर आबिद सुरती और बाहर के अंतिम पृष्ठ पर गिजुभाई बधेका का संक्षिप्त परिचय दिया है, जो पाठकों के लिए निश्चय ही उपयोगी जानकारी है।
“गिजुभाई का ख़जाना- पहली किताब” में कुल सात कहानियां हैं जो बीस पन्नों में छपी हैं- डिंग शास्त्र, मनमौजी कौआ, जो बोले सो निहाल, चबर-चबर, करते हों सो कीजिए, फू-फू बाबा और शेर के भांजे। “डिंग-शास्त्र” जय-पराजय की कहानी है जो बुद्धि के प्रयोग की बात करता है, तो “मनमौजी कौआ” आज़ादी का सन्देश देता हुआ, इसकी महत्ता को रेखांकित करता है। “जो बोले सो निहाल” चाचा-भतीजा के मूर्खता को हास्य तरीके से प्रस्तुत करता है तो “चबर-चबर” धूर्त लोगों से बचने की सीख देता है। “करते हों सो कीजिये” अकल बिना नक़ल न करने का सन्देश देता है तो फू-फू बाबा बाप-बेटे के मुसीबत से बचने के अनोखे तरीके को हल्के-फुल्के रूप में प्रस्तुत करता है। “शेर के भांजे” कहानी में एकता में शक्ति को समझाने की कोशिश की गयी है।
“गिजुभाई का ख़जाना- दूसरी किताब” में भी कुल सात कहानियां हैं, जो चौबीस पृष्ठों में छपी हैं- लाल बुझक्कड़, सिरफिरा सियार, लड्डू का स्वाद, शायर का भुर्ता, पोंगा पंडित, भोला-भाला, चूहा बन गया शेर। “लाल बुझक्कड़” अनपढ़ गाँव के एक थोड़े होशियार आदमी की कहानी है। वैसे लाल बुझक्कड़ अपने आप में सम्पूर्ण मुहावरा है। “सिरफिरा सियार” किसी के मूर्खता के चरम तक पहुँच कर खुद का नुकसान कर लेने की कहानी है। “लड्डू का स्वाद” दूसरे की नक़ल न करने की सलाह देता है तो “शायर का भुर्ता” चोरी जैसी गलत आदतों से बचने का। “पोंगा पंडित” कहानी में सीधे-सीधे शब्दों में समझाती है कि अपने ज्ञान का समय और परिस्थिति के अनुसार कैसे उपयोग किया जाना चाहिए। “भोला-भाला” कहानी की सीख है कि धूर्त लोगों पर कभी विश्वास न करो। “चूहा बन गया शेर” में चूहे की निर्भीकता को बड़े ही चुटीले अंदाज में कहानी की शक्ल में पिरोया गया है।
कुल मिलकर दोनों खण्डों की चौदह कहानियां बेहद रोचक और पठनीय हैं। बच्चे इस किताब को बहुत पसंद करेंगे। प्रथम बुक्स ने एक खंड का मूल्य चालीस रूपये रखा है। जो पेज और छपाई के हिसाब से सही है पर बच्चों के हिसाब से थोड़ा अधिक है। मेरे अनुसार, मूल्य की वजह से यह एक विशेष वर्ग तक ही अपनी उपस्थिति दर्ज कर पायेगी। अगर सरकारी स्कूल के पुस्तकालय इसे अपने यहाँ रखें तो निश्चित रूप से दोनों खंड बच्चों में लोकप्रिय होंगे और बहुत ही उपयोगी साबित होंगे। आजकल अक्सर कई लोगों से एक शिकायत सुनने को मिलती रहती है कि बाल साहित्य में लेखक, पाठक और अच्छी किताबें नहीं हैं। मेरा आग्रह है कि उन्हें एक बार इन खण्डों को जरूर पढ़ना चाहिए।
एक कड़वा सच यह भी है कि सूचना-संचार में आधुनिक मनोरंजन के साधनों की बेतहाशा सुलभता ने वर्तमान पीढ़ी की पुस्तक पठन की आदतों को कम ही किया है। किताबों में रूचि भी कम हुई है, तो बाल साहित्य पढ़ना दूर की बात है। अच्छे साहित्य उपलब्ध ने होने का हवाला हर कोई देता है। उम्मीद है कि ‘गिजुभाई के ख़जाने’ को पढ़ कर ये शिकायतें कुछ हद तक जरूर कम हो जायेंगी।
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