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किताब का नाम – लस्‍सी या फालूदा?
कहानी – माला कुमार और मनीषा चौधरी
चित्रांकन – प्रिया कुरियन
हिन्‍दी अनुवाद – राजेश खर
प्रकाशक – प्रथम बुक्‍स

लॉकडाउन के इन दिनों में किताबों के साथ दोस्‍ती पक्‍की हो गई है। हर रोज़ एक चित्रकथा पढ़ रही हूं। ऐसी ही एक किताब पिछले दिनों पढ़ी है लस्‍सी या फालूदा? इसके नाम से ही ठंडक का एहसास मिलता है। वैसे यह किताब गर्मी के मौसम के बारे में बात करती है। हालांकि इसमें ऋतु चक्र भी है। इस किताब को जब मैंने पढ़ा तो पहला सवाल मेरे मन में आया कि इस किताब को आगे साझा करना चाहिए क्‍या? यह गैर-कथा साहित्‍य था और हर पेज पर मौसम के इर्द-गिर्द बुना गए टैक्‍स्‍ट में शुरुआत से अन्‍त तक कोई जुड़ाव भी नहीं दिखा। हालांकि मौसम के अन्‍तर्गत शहरी जीवन के बचपन, परिवारों और उनके उत्‍सव आदि को टैक्‍स्‍ट बयान करता है और साथ ही विविधता को भी। यहां विविधता से मेरा आशय विभिन्‍न धर्म-संप्रदाय के लोगों से है। एक और बात यह भी थी कि एक बच्‍चे के नज़रिए से मौसम पर संवाद करती इस कहानी में बचपन की विविधता नज़र नहीं आई। एक मिडिल क्‍लास शहरी लड़की जो आज्ञाकारी है। कहानी की शुरुआत में जो दृश्‍य है वो बच्‍चे के परिवेश और पारंपरिक शहरी परिवार को दर्शाता और टैक्‍स्‍ट भी लगभग वही कहता है। मेरी उत्‍सुकता यह थी कि आगे क्‍या होगा पर वह भी कमज़ोर पड़ी क्‍योंकि वह भी आकर्षक नहीं था। मां-बाबा की आज्ञा मानकर बच्‍चे पेड़ों की छांव में फल खाते हुए कहानी सुन रहे थे। इस बात में जाने क्‍यूं पर एक कृत्रिमता लगी।

इन दो पेजों के बीच मेरे अपने बचपन की गर्मी याद हो आई। दोपहर में जब मां सो रही होती तो पेड़ों पर चढ़कर अधपकी कैरी को तोड़ने में क्‍या मज़ा आता था। पूरे मोहल्‍ले के बच्‍चे घरों के बाहर होते। जो बड़े थे वो घरों से दूर के पेड़ों पर हाथ साफ करते और छोटे आस-पड़ोस के पेड़ों पर पत्‍थर सन्‍नाते। बेशर्म की डंडियों का मंडप बनाकर उसे मिट्टी से छापने की कोशिश भी दोपहरी में जाने कितनी बार की। मां के हाथों हुई पिटाई भी याद आ गई। और आइसक्रीम वाले भोंपू भइया भी। जिनकी गाड़ी की चरमराहट दूर तक सुनाई देती थी।

अगले पन्‍ने पर गर्मी के मौसम में आने वाले त्‍योहारों और उत्‍सवों का जिक्र था। देश के अलग-अलग हिस्‍सों में मनाए जाने वाले नए साल के उत्‍सवों के ज़रिए उन लोगों की संस्‍कृति कला आदि को जानने का मौका इसमें दिखा। बच्‍चों और बड़ों, दोनों के लिए ही इसमें काफी सोचने-विचारने की जगह है। फसलों का कटना अपने आप में किसी उत्‍सव से कम नहीं है और अच्‍छी फसल होने की खुशी त्‍योहारों के रूप में उभरती है।

त्‍योहार और खाने का संबंध गहरा है। वो भी इस थीम आधारित किताब में है। हालांकि यह किताब और बेहतर तरीके से गर्मी को दर्शा सकती थी। इसमें हर पन्‍ने पर एक नया दृश्‍य है। यह गैर-कथा है पर एक निरन्‍तरता होनी चाहिए ताकि अंतिम पन्‍ने तक आने का एक क्रम दिखे। अभी यह निरन्‍तरता कहीं टूटी हुई है। एक शहरी मध्‍यमवर्गीय बच्‍चे की जि़न्‍दगी और गर्मी की गुंथन भरी इस किताब में पर्यावरण को बनाए रखने का एक संदेश भी है।

इसमें चित्र और बेहतर हो सकते हैं ऐसा लगता है क्‍योंकि इस तरह की थीम आधारित किताबों में चित्रों में काफी कुछ कहने की गुंजाइश रहती है। अभी केवल टैक्‍स्‍ट जितना कह रहा है उतना ही चित्रों में है। बच्‍चों के पठन स्‍तर को ध्‍यान में रखते हुए भी चित्रों में कुछ और दृश्‍य उभरने से बच्‍चों को सोचने, अंदाजे लगाने और पड़ताल करने के काफी अवसर मिलते हैं।

किताब को खोलते ही जो सवाल मेरे मन में आया था कि इसे आगे साझा करना चाहिए क्‍या? किताब पढ़ने के बाद मुझे लगा कि इसे साझा करने से मेरे कुछ पूर्वाग्रह टूटेंगे और जो मुझसे छूट गया है वो भी जानने का मौका तो है ही। सो मैंने इस किताब को एकलव्‍य फाउंडेशन के पढ़ो लिखो मज़ा करो कार्यक्रम की रीडिंग फेसिलिटेटर के साथ पुस्‍तक चर्चा के लिए साझा किया।

सामूहिक चर्चा के दौरान मुझे पता चला कि अठारह साथियों में से छह साथी ऐसी थीं जिनके लिए फालूदा एक नई चीज़ थी। इस किताब में फालूदा के बारे में जानने के बाद उन्‍होंने इंटरनेट पर इसको ढूंढा। कुछ ने चर्चा के दौरान मुझसे यह सवाल किया कि इसके बारे में बताएं। भारत के दक्षिण हिस्‍से के त्‍योहारों के साथ एक बार फिर से देश के बाकी जगहोंं के नए साल को लेकर बात हुई। एक जनवरी के अलावा और कब-कब नया साल आता है इस पर बच्‍चों के साथ गतिविधि करने के बारे में बात हुई। टैक्‍स्‍ट के हर पेज पर अलग होने की बात रीडिंग फेसिलिटेटर ने कही और यह भी वो कह सकीं कि ये एक कहानी नहीं है। आज भी गांवों में जिन घरों में कूलर नहीं है वो फर्श पर पानी डालते हैं और गीली चुन्‍नी या पतला कपड़ा ओढ़ते हैं ताकि कुछ राहत मिल सके। कुछ लोगों ने दिल्‍ली के दृश्‍य के साथ अपने दिल्‍ली जाने के अनुभव को सामने रखा। अपने प्रदेश में कहां गर्मी कम होगी इस बारे में भी सोचा।

रीडिंग फेसिलिटेटरों के इन अनुभवों ने किताब को लेकर फिर कुछ नया जोड़ा। मसलन, गैर-कथा साहित्‍य को लाइब्रेरी एड्यूकेटर्स के साथ साझा करते समय किसी सवाल को न देने से किताब के बारे में अलग-अलग विचारों के आने की गुंजाइश बढ़ती है। कई बार सवालों के कारण चर्चा में सीमितता आ जाती है। यदि किताब में कुछ ऐसा है जो पाठक ने अभी तक अनुभव नहीं किया है तो उसकी उत्‍सुकता उस नई जानकारी के प्रति बढ़ती है। दरअसल ऐसा यदि हो रहा है तो यह लाइब्रेरी में बच्‍चों के साथ लाइब्रेरी एड्युकेटर्स के संवाद को और बेहतर बनाएगा क्‍योंकि बच्‍चों के जो सवाल या जिज्ञासा होगी उसके बारे में लाइब्रेरी एड्युकेटर को पढ़ने, जानने का काम करना होगा और ऐसा करते समय एक थीम से संबंधित अन्‍य कई किताबें भी वो पलटेंगी-पढेंगी।

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