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किताब का नाम: कहानी रंजन की
कहानी: नबनीता देव सेन
चित्रण: प्रोइती रॉय
अंग्रेजी से अनुवाद: सुशील जोशी
प्रकाशक: एकलव्य फाउंडेशन, भोपाल

“सीखने की विभिन्न प्रक्रियाओं से गुजरकर अर्जित किए गए ज्ञान को व्यवहारिक शिक्षा से जोड़ना जरूरी है।”

शिक्षा के उद्देश्यों पर बात करते हुए अक्सर इस बात को अलग से रेखांकित किया जाता है। लेकिन व्यवहारिक स्तर इसे उतारने के लिए अनेक सघन प्रयासों की आवश्यकता है। एकलव्य फाउंडेशन,भोपाल द्वारा प्रकाशित ‘कहानी रंजन की’ का मूल स्वर भी यही है। विश्व साहित्य की जानी-मानी लेखिका नबनीता देव सेन ने इस कहानी को लिखा है। इसके चित्र प्रोइती रॉय ने बनाए हैं।

कहानी का मुख्य पात्र रंजन परम्परागत शिक्षा व्यवस्था के साथ सामंजस्य बिठा पाने में असफल रहा है। कहानी पांच बेटों वाले एक परिवार के इर्द-गिर्द बुनी गई है। जिसके लिए जीवन के हर छोटे-बड़े मौके पर सफ़ल होना, उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि से जुड़ा है। उसके समाज-परिवेश की प्रतिस्पर्धाएँ भी डॉक्टर, वकील, ज़ज और मजिस्ट्रेट आदि तैयार करने की हैं। इसलिए परिवार के बेटे ‘रंजन’ का प्रारंभिक कक्षाओं में ही ‘फेल’ हो जाना घनघोर पारिवारिक चिन्ता का विषय था। कहानी का परिदृश्य कुछ दशक पुराना है। लेकिन परिवारिक चिंताएँ सामायिक हैं। अपने समाज के लगातार विकास पथ पर अग्रसर होने के बावजूद भी इस तरह की चिंताएँ यथावत हैं।

रंजन के स्कूल वापस नहीं जाने की ज़िद, बाबा का उसे भेजने पर अड़ना, रंजन की माँ का यह कहते हुए बीच-बचाव यह कहते हुए करना कि – ‘मेरी कोई बेटी नहीं है। इसे मेरे भरोसे छोड़ दो। जो कुछ थोड़ा-बहुत मैं जानती हूँ। इसे सिखाऊँगी!’ इस तरह के एक सामान्य से कथानक को बुनते हुए बीच में अचानक लेखिका का एक सवाल पूछना लेना कि ‘किसान की पत्नी क्या शिक्षा दे पाएगी?’ इस तरह के प्रश्न कहीं न कहीं हमारे सामाजिक अंतर्द्वंद, विरोधाभास और आशंकाओं को भी इंगित करते हैं।

कहानी में रंजन की माँ सही मायनों में उसकी शिक्षक हैं। वे उसे बड़ी, पापड़, आचार, चावल से मांड निथारना, दूध उबालना, गुड़ बनाने के साथ-साथ पारंपरिक व्यंजन बनाना सिखाती हैं। जिसके आधार पर रंजन शहरी व्यंजनों को बनाना सीखता है। वह विदेश में सफ़ल ‘उस्ताद रसोईया’ बन जाता है। सफ़लता के मुकाम को छूते हुए जब वह लौट रहा होता है तो सोचता है कि वह माँ से कहेगा, “देखो माँ, तुम्हारी शिक्षा ने मेरे जीवन को कितना सफ़ल बना दिया है।” जो कहीं न कहीं बुनियादी शिक्षा एवं शिक्षा के वास्तविक उद्देश्यों को सार्थकता प्रदान करता दिखता है।

किसी भी हुनर के विकसित होने के लिए व्यक्तिगत रुचि और लगन आवश्यक शर्त हैं। अनुकूल परिवेश मिलने से हुनर निखरता है, जो एक बड़े मुकाम तक पहुँचने में मदद करता है। ‘कहानी रंजन की’ गणित विषय में असफ़ल स्कूली बच्चे की ‘उस्ताद रसोईया’ बनने, फिर सैनफ्रांसिस्को में सफ़ल शेफ़ बनने की यात्रा की कहानी है। लेखिका ने रंजन की सैन फ्रांसिस्को यात्रा के बहाने अपनी जगह से पहली बार बाहर निकले किसी व्यक्ति के यात्रा-अनुभवों, मनःस्थिति, बाहरी वातावरण से सामंजस्य बिठाने में आई परेशानियों आदि को बहुत ही बारीकी से लिखा है। इस तरह की यात्राएं सभी के लिए आवश्यक हैं। ये यात्राएँ हमारे लिए न सिर्फ नए अनुभवों के द्वार खोलती हैं, बल्कि हमें हमारे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जकड़नों से मुक्त भी करती हैं।

यहाँ हिंदी के प्रसिद्ध कवि अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की कविता ‘एक बूँद’ की पंक्तियाँ प्रासंगिक हो उठती हैं कि –

लोग यूँ ही हैं झिझकते सोचते,
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें,
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।

एक सार्थक उद्देश्य को लेकर लिखी गई यह कहानी कहीं-कहीं विवरणात्मक हो गई है। जिनका मूल कहानी से सीधा-सीधा जुड़ाव नहीं दिखता। यह कहानी के प्रभाव को कम भी करता है। लेखिका ने कहानी में कई बांग्ला के शब्दों का प्रयोग किया है मसलन बोरदा, पुकुर, पीठे-पुली आदि। मूल अंग्रेजी से अनुवाद करते हुए अनुवादक सुशील जोशी ने हिंदी में भी उन्हें जस का तस रखा है। कहानी के अंत में उन बंगाली शब्दों के हिंदी अर्थ भी दिए गए हैं। इससे पाठक नए शब्दों एवं उनके सन्दर्भों से अवश्य परिचित होंगे।

प्रोइती रॉय के बनाए चित्र भावपूर्ण और सार्थक हैं। जो कहानी के घटनाक्रम से तालमेल बनाए रखते हैं।

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